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नागरिको की संपत्ति हड़पने वाला कानून साबित होता भारतीय वन अधिनियम 1927

 

बैतूल। मप्र राज्य। भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 52 को नागरिको की संपत्ति हड़पने वाला कानून कहा जाता हैं। वन विभाग अपराध दर्ज करता हैं, वन विभाग मामले की सुनवाई करत हैं, वन विभाग निर्णय देता हैं और वन विभाग ही अपील की सुनवाई करता हैं। इसलिए वन अदालतों के फैसले वन विभाग के पक्ष में ही जाते हैं। वन कानून में जिला न्यायालय की भूमिका बेहद सीमित हैं जो कि पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई करती हैं। इसके बाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक नागरिक जा सकता हैं।
प्राधिकृत अधिकारी एवं उप वन मंडलाधिकारी धारा 52 में वाहन राजसात की कार्यवाही की सुनवाई करते हैं। इस अदालत में अधिवक्ता पैरवी नहीं कर सकते हैं, एैसा प्रावधान कानून में तो नहीं हैं लेकिन वन अदालत में वाहन मालिक चाहे तो भी अधिवक्ता नियुक्त नहीं करने दिया जाता हैं। गवाहों का परीक्षण एवं प्रतिपरीक्षण होता हैं। बचाव में गवाह पेश करने के लिए कहा जाता हैं। अंततः वाहन राजसात हो जाता हैं। इस कार्यवाही में करीब 01 वर्ष का समय लग जाता हैं। सबसे बड़ा नुक्सान वाहनों को होता हैं जो कि कबाड़ बन जाते हैं। कानून में व्यवस्था दी गई हैं जिसमें वाहन की कीमत जमा करके वाहन को मुक्त किया जा सकता हैं लेकिन वन अदालते इसके लिए तैयार नहीं होती हैं।
अपीलीय अधिकारी सह मुख्य वन संरक्षक की अदालत में अपील की सुनवाई होती हैं। कुछ मामलों में 01 वर्ष से अधिक का समय लग जाता हैं। अंततः निर्णय वन विभाग के पक्ष में ही जाता हैं। सबसे बड़ा नुक्सान वाहनों को होता हैं वाहन कबाड़ बन जाते हैं।
न्यायालय में पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई होती हैं बहुत कम मामलों में पुनरीक्षण याचिका सफल होती हैं। हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट से बहुत कम मामलों में सफलता प्राप्त होती हैं।
वन अपराध के मामलों में धारा 52 (4) का नोटिस मिलने पर वाहन स्वामी उचित बचाव लेता हैं तो उसे आगे जाकर सफलता मिलती हैं। कानून में धारा 52 (5) में बचाव दिया गया हैं। कानून में बताया गया हैं कि वाहन कब राजसात नहीं किया जा सकता हैं। इस संबंध में हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले मौजूद हैं जो कि वन विभाग के विरूद्ध गए हैं।
भारत की सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट के सामने कानून एवं न्याय के कई सवाल खड़े हुए हैं जिसका समय समय पर उत्तर दिया गया हैं। वन अपराध के प्रत्येक मामले में वाहन राजसात किया जाना आवश्यक नहीं हैं। कुछ परिस्थितियॉ एैसी हो सकती हैं जो कि वाहन राजसात की कार्यवाही को न्यायोचित नहीं ठहराई जा सकती हैं। मसलन वनोपज की कीमत कुछ हजार रूपए हैं जबकि वाहन का मूल्य लाखों रूपए में हैं। एैसी दशा में वाहन को राजसात नहीं किया जा सकता हैं। वाहन स्वामी को वन अपराध की कोई जानकारी नहीं हैं और वाहन स्वामी मौके पर हाजिर नहीं था तो भी वाहन राजसात नहीं किया जा सकता हैं। वाहन स्वामी की सहमति के बिना कोई अन्य व्यक्ति वाहन का उपयोग वन अपराध में करता हैं तो वाहन को राजसात नहीं किया जा सकता हैं। वाहन स्वामी ने करीब 06 दिन पूर्व ही वाहन चालक नियुक्त किया था और वाहन वन अपराध में लिप्त हो गया तब भी वाहन स्वामी का वाहन राजसात नहीं किया जा सकता है। वन अपराध में जप्तशुदा वाहन के साथ वन उपज जप्त नहीं हैं तो भी वाहन को राजसात नहीं किया जा सकता हैं। वाहन में जप्तशुदा खनिज को वनोपज बता दिया गया हैं लेकिन वह वनोपज नहीं हैं तो भी वाहन राजसात नहीं किया जा सकता हैं।
वाहन राजसात की कार्यवाही में वन अपराध के विशेषज्ञ अधिवक्ता नियुक्त किया जाना चाहिए। वन विभाग से प्राप्त होने वाले वाहन राजसात के नोटिस का जवाब अधिवक्ता के परामर्श पर दिया जाना चाहिए। वाहन स्वामी को अधिवक्ता के परामर्श पर चलना चाहिए तो ही बचाव संभव हैं। अक्सर यह भी देखने में आता हैं कि मुख्य वन संरक्षक की अदालत में अपील दाखिल की जाती हैं जिसमें अपील को भारतीय दण्ड विधान के मापदण्डों पर तैयार कर पेश कर दिया जाता हैं जो कि धातक होता हैं। भारतीय वन अधिनियम 1927 एक विशेष कानून हैं जिसमें एक विशेष बचाव लिया जाता हैं तभी मान्य होता हैं। वन विधि में अपील कैसे तैयार की जाती हैं यह जानकारी वन विधि का विशेषज्ञ अधिवक्ता ही बता सकता हैं। पुनरीक्षण याचिका अन्य दांडिक मामलों की तरह तैयार नहीं की जाती हैं। पुनरीक्षण याचिका में विधि के प्रश्न पर विचार किया जाता हैं जिसे सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट के न्यायदृष्टांतो के मापदण्डों पर तैयार किया जाता हैं तभी वह अदालत में सफल होती हैं।

आजाद हिन्दुस्तान लाइव
जिला ब्यूरो चीफ
देवीनाथ लोखंडे की रिपोर्ट

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